संयुक्त परिवार

संयुक्त परिवार

कितने सुन्दर कितने प्यारे,
संस्कार वहाँ पर मिलते थे।
दृश्य मनोरम होता था जब,
साझे चूल्हे जलते थे।।

चाचा-ताऊ, बुआ-भतीजा,
और न जाने कितने रिश्ते।
हमको तब लगता था मानो,
मिले हमें अनगिनत फरिश्ते।।

साझे परिवारों का चलन था,
स्वार्थ वहाँ कम मिलते थे।
दृश्य मनोरम होता था जब,
साझे चूल्हे जलते थे।।

बड़े-बुजुर्गों के हाथों में,
अनुशासन की डोर थी।
सबको मजबूती से बाँधे,
कड़ी नहीं कमजोर थी।

घर का मुखिया सर्वमान्य था,
रोज देव कब गढ़ते थे।
दृश्य मनोरम होता था जब,
साझे चूल्हे जलते थे।।

दादी का तब लाड़ बहुत था,
हम बाबा के प्यारे थे।
दूध, दही की नदियाँ बहती,
खेल-खिलौने न्यारे थे।।

टीवी वीडियो गेम नहीं थे,
खेल कबड्डी चलते थे।
दृश्य मनोरम होता था जब,
साझे चूल्हे जलते थे।।

रोजगार की खातिर सब,
अपनों से कितने दूर हुए।
भूल चुके अपनापन मानो,
दिल में नये फितूर हुए।।

एकाकी परिवार हुए जो,
साझे सपने बुनते थे।
दृश्य मनोरम होता था जब,
साझे चूल्हे जलते थे।।

साथ नहीं रह सकते यदि हम,
कुछ नैतिक माहौल बनाएँ।
घर के बड़े बुजुर्गों का हम,
बच्चों से सम्मान कराएँ।।

उनको भान कराएँ कि हम,
इनकी गोद में पलते थे।
दृश्य मनोरम होता था जब,
साझे चूल्हे जलते थे।।

रचयिता
प्रदीप कुमार चौहान,
प्रधानाध्यापक,
मॉडल प्राइमरी स्कूल कलाई,
विकास खण्ड-धनीपुर,
जनपद-अलीगढ़।

Comments

Popular posts from this blog

आत्ममंथन : टीचर में कुछ अवगुण~आओ मिल कर दूर करें

मिशन शिक्षण संवाद : मिशन शिक्षण संवाद क्या?

हिन्द से हिन्दी